Thursday, December 16, 2010

मैं अपनी तमन्नाओं को यूँ दबाता चला गया ,

मैं अपनी तमन्नाओं को यूँ दबाता चला गया ,
उसके हर जुल्म को यूँ मिटाता चला गया ,
वो समझे भी नहीं तनिक हमारे इशारे को कभी ,
या वो हमारी नजरों से नजर चुराता चला गया ,
जख्म मैंने लिए इश्क के और लेता चला गया ,
वो इन जख्मों को और कुरेदता चला गया ,
मैंने हटने ना दी इन मुस्कुराहटों को चेहरे से कभी ,
और वो इन मुस्कुराहटों को सच्चा समझता चला गया ,
उनकी आँखों में इज़हार आएगा कभी ,
इंतज़ार में इतना सोंचा और सब कुछ गवाता चला गया .

ब्रजेन्द्र यादव :---

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